नैतिक उत्तरदायित्व और न्याय की संकल्पना स्वतंत्र इच्छा के बिना टिकती नहीं; इसलिए स्वतंत्र इच्छा मानना व्यावहारिक व दार्शनिक रूप से अनिवार्य है.
जब हम किसी को सराहते या दोषी ठहराते हैं, तो हम यह मानते हैं कि वह व्यक्ति कारणों के प्रति संवेदनशील था और अलग तरह से कर सकता था। यही ‘reasons-responsiveness’ एजेंसी की रीढ़ है; इसके बिना कानून, शिक्षा और आत्म-सुधार का समूचा ढाँचा महज़ शर्तीय कंडीशनिंग बनकर रह जाता है। स्वतंत्र इच्छा इस जिम्मेदारी को आधार देती है कि हम बेहतर कारण देखकर अपने विकल्प बदल सकते हैं—और यही नैतिक विकास का इंजन है। नियतिवाद की अंतर्दृष्टियाँ मूल्यवान हैं, पर यदि उन्हें निर्णायक मान लें तो ‘डिज़र्ट’ (desert) और ‘उत्तरदायित्व’ के अर्थ खोखले पड़ जाते हैं.
विवेकपूर्ण विचार-विमर्श स्वयं एक कारण-शक्ति है—हमारी सोच हमारे कर्मों की संभावनाएँ बदलती है.
जब हम विकल्पों पर सोचते हैं, तो हम नई जानकारी, प्राथमिकताएँ और मूल्य जोड़ते हैं; यह प्रक्रिया भविष्य के क्रियानिर्णय के वितरण को वास्तविक रूप से परिवर्तित करती है। दार्शनिक साहित्य में इसे ‘deliberation crowds out prediction’ कहा गया—जिस क्षण एजेंट सचमुच विचार कर रहा होता है, उसी क्षण पूर्वानुमान निष्प्रभावी हो जाते हैं क्योंकि एजेंट कारणों से मार्ग बदल रहा होता है। स्वतंत्र इच्छा का सार यही है: कारणों को ग्रहण कर के उन्हें क्रिया में परिणत करना, न कि पहले से तय स्क्रिप्ट को केवल निभा देना। इस दृष्टि से स्वतंत्रता भ्रम नहीं, बल्कि तर्कसंगत नियंत्रण की मानदंडात्मक क्षमता है.
उद्भवित एजेंसी और बहु-स्तरीय कारणता दिखाती है कि स्वतंत्र इच्छा भौतिक नियमों के साथ संगत रहते हुए भी वास्तविक प्रभाव डालती है.
जटिल प्रणालियाँ—दिमाग, समाज, संस्थान—में ‘टॉप-डाउन’ प्रभाव होते हैं: नियम, लक्ष्य और मानदंड न्यूरल सूक्ष्म-स्थितियों के मार्ग को सीमित और निर्देशित करते हैं। एजेंट-स्तरीय लक्ष्य, जैसे ‘झूठ न बोलना’, लाखों न्यूरॉनों की गतिशीलता को ऐसे संकीर्ण गलियारों में ले जाते हैं जहाँ कुछ माइक्रो-स्थिति सम्भव और कुछ नहीं रहतीं। यह किसी रहस्यमय द्वैतवाद की नहीं, बल्कि स्तर-सापेक्ष वास्तविकता की बात है—एजेंट-स्तर के कारण सूक्ष्म-स्तर पर कारणिक बाधाएँ बनते हैं। यही उद्भवित नियंत्रण स्वतंत्र इच्छा को ठोस, क्रियात्मक और व्याख्यात्मक रूप से अपरिहार्य बनाता है.
न्यूरोसाइंस बताती है कि निर्णय-नियंत्रण की ‘वेटो’ और समय-खिड़कियाँ (लगभग 150–200 मिलीसेकेंड) एजेंट को वास्तविक जैविक स्वतंत्रता देती हैं.
लिबेट-शैली के प्रयोगों की नयी व्याख्या (Schurger et al., 2012) दिखाती है कि ‘रेडिनेस पोटेन्शियल’ अक्सर शोर के संचय का औसत होता है, न कि पहले से तय फैसला। रीयल-टाइम BCI अध्ययनों में (Schultze-Kraft et al., PNAS 2016) प्रतिभागियों ने मशीन द्वारा 150–200 ms पहले अनुमानित क्रियाओं को अंतिम क्षणों में निरस्त किया—एक कार्यशील ‘वीटो’ खिड़की। यह संकेत करता है कि सजग हस्तक्षेप समय-संवेदी परतों पर सचमुच फर्क डालता है, केवल पश्च-व्याख्या नहीं। इस प्रकार, डेटा स्वतंत्र नियंत्रण के लिए एक मापक, जैविक स्थान की पुष्टि करता है, जो नैतिक और व्यावहारिक जिम्मेदारी से सीधा जुड़ा है.